माँ त्रिपुरा सुन्दरी का प्राचीन और प्रसिद्ध शक्तिपीठ राजस्थान के दक्षिणांचल में वागड प्रदेश (बाँसवाड़ा और डूंगरपुर का निकटवर्ती क्षेत्र) में अवस्थित है ।
देवी का यह सुविख्यात मन्दिर बाँसवाड़ा से लगभग 19 की.मी.की दूरी पर स्थित है तथा तलवाड़ा से यह लगभग 5 की.मी. दूर है । त्रिपुरा सुंदरी का यह मन्दिर एक सिद्ध तांत्रिक शक्तिपीठ है, जिसकी लोक में बहुत मान्यता है ।
देश के कोने-कोने से श्रद्धालु देवी की आराधना कर अपना मनोवांछित फल पाने वहाँ आते हैं । उमरई गाँव के पास सघन वन के मध्य बने इस प्राचीन मन्दिर में देवी की अठारह भुजाओं वाली काले पत्थर से बनी भव्य और सजीव प्रतिमा प्रतिष्ठापित है, जो त्रिपुरा सुन्दरी के नाम से विख्यात है । स्थानीय लोगों में यह देवी तुरतईमाता के नाम से लोकप्रिय है ।
देवी त्रिपुरा सुंदरी सिंहवाहिनी हैं, जिसकी अठारह भुजाओं में से प्रत्येक में कोई न कोई आयुध है । देवी के चरणों के नीचे यन्त्र बना हुआ है । आधार में कमल भी एक तांत्रिक यन्त्र है । देवी की इस मूर्ति की पृष्ठभूमि में भैरव, देवासुर संग्राम तथा देवी के शस्त्रों का सुन्दर अंकन हुआ है ।
पौराणिक मान्यता के अनुसार दक्ष यज्ञ के विध्वंस के बाद शिव की पत्नी सती अग्निकुण्ड में जल गई । शिव के ताण्डव नृत्य के उपरान्त भगवान विष्णु द्वारा सुदर्शन चक्र से उनके शव को छिन्न-भिन्न कर दिया गया, जिसमे शिव पत्नी सती का मस्तक जहाँ गिरा वह स्थान माँ त्रिपुरा सुन्दरी का शक्तिपीठ कहलाया। त्रिपुरा सुन्दरी के इस प्राचीन मन्दिर का निर्माण कब तथा किस शासक द्वारा करवाया गया, इस बारे में प्रामाणिक जानकारी का आभाव है । मन्दिर के उत्तरी विभाग में एक शिवलिंग प्रतिष्ठापित है, जिसके बारे में यह माना जाता है कि यह कुषाण काल का है । सम्भवतः देवी का यह प्राचीन मन्दिर कनिष्क के शासनकाल से भी पहले का है ।
जनश्रुति है कि जिस स्थान पर देवी का मन्दिर है, उसके आस पास कोई गढ़ था जिसका नाम गढ़पोली या दुर्गापुरा था । नरसिंहशाह यहाँ का शासक था । संवत 1540 के एक शिलालेख में त्रिउरारी (त्रिपुरारी) शब्द का उल्लेख आया है । सम्भवतः यह शक्तिपीठ उस काल में विशेष रूप से प्रसिद्ध था ।
माँ त्रिपुरा सुन्दरी के इस शक्तिपीठ की प्रसिद्धि का एक प्रमुख कारण यह था कि देवी के इस स्थान के प्रति विभिन्न राजवँषोंकी बहुत आस्था एवं श्रद्धा थी । मालवा के परमार राजाओं के शासनकाल में त्रिपुरा सुन्दरी की पूजा-अर्चना का विशेष प्रबन्ध किया गया । लोकविश्वास है कि गुजरात के शासक भी देवी के इस मन्दिर में अपनी श्रद्धा भक्ति नवोदित करने आते थे । गुजरात के सोलंकी नरेश सिद्धराज जयसिंह की यह इष्ट देवी थी ।
इतिहासकारों की धारणा है कि देवी के प्राचीन मन्दिर को या तो महमूद गजनवी ने गुजरात के सोमनाथ मन्दिर पर आक्रमण के लिए जाते समय तोड़ा अथवा दिल्ली के सुलतान अलाउद्दीन खिलजी ने अपने गुजरात अभियान पर जाते समय इस प्राचीन मन्दिर का विध्वंश किया । सम्भवतः श्रद्धालुओं द्वारा देवी की प्राचीन प्रतिमा वहाँ से हटाकर अन्यत्र सुरक्षित स्थान पर छिपा दी गई । तदनन्तर इस मन्दिर का जीर्णोद्धार होने पर देवी प्रतिमा को पुनर्प्रतिष्ठापित किया गया ।
माँ त्रिपुरा सुन्दरी वागड़ प्रदेश में अत्यधिक लोकप्रिय है तथा वहाँ के आदिवासियों में देवी की बहुत मान्यता है । रविवार के दिन देवी के मन्दिर में विशेष चहल-पहल रहती है ।
देवी का यह सुविख्यात मन्दिर बाँसवाड़ा से लगभग 19 की.मी.की दूरी पर स्थित है तथा तलवाड़ा से यह लगभग 5 की.मी. दूर है । त्रिपुरा सुंदरी का यह मन्दिर एक सिद्ध तांत्रिक शक्तिपीठ है, जिसकी लोक में बहुत मान्यता है ।
देश के कोने-कोने से श्रद्धालु देवी की आराधना कर अपना मनोवांछित फल पाने वहाँ आते हैं । उमरई गाँव के पास सघन वन के मध्य बने इस प्राचीन मन्दिर में देवी की अठारह भुजाओं वाली काले पत्थर से बनी भव्य और सजीव प्रतिमा प्रतिष्ठापित है, जो त्रिपुरा सुन्दरी के नाम से विख्यात है । स्थानीय लोगों में यह देवी तुरतईमाता के नाम से लोकप्रिय है ।
देवी त्रिपुरा सुंदरी सिंहवाहिनी हैं, जिसकी अठारह भुजाओं में से प्रत्येक में कोई न कोई आयुध है । देवी के चरणों के नीचे यन्त्र बना हुआ है । आधार में कमल भी एक तांत्रिक यन्त्र है । देवी की इस मूर्ति की पृष्ठभूमि में भैरव, देवासुर संग्राम तथा देवी के शस्त्रों का सुन्दर अंकन हुआ है ।
पौराणिक मान्यता के अनुसार दक्ष यज्ञ के विध्वंस के बाद शिव की पत्नी सती अग्निकुण्ड में जल गई । शिव के ताण्डव नृत्य के उपरान्त भगवान विष्णु द्वारा सुदर्शन चक्र से उनके शव को छिन्न-भिन्न कर दिया गया, जिसमे शिव पत्नी सती का मस्तक जहाँ गिरा वह स्थान माँ त्रिपुरा सुन्दरी का शक्तिपीठ कहलाया। त्रिपुरा सुन्दरी के इस प्राचीन मन्दिर का निर्माण कब तथा किस शासक द्वारा करवाया गया, इस बारे में प्रामाणिक जानकारी का आभाव है । मन्दिर के उत्तरी विभाग में एक शिवलिंग प्रतिष्ठापित है, जिसके बारे में यह माना जाता है कि यह कुषाण काल का है । सम्भवतः देवी का यह प्राचीन मन्दिर कनिष्क के शासनकाल से भी पहले का है ।
जनश्रुति है कि जिस स्थान पर देवी का मन्दिर है, उसके आस पास कोई गढ़ था जिसका नाम गढ़पोली या दुर्गापुरा था । नरसिंहशाह यहाँ का शासक था । संवत 1540 के एक शिलालेख में त्रिउरारी (त्रिपुरारी) शब्द का उल्लेख आया है । सम्भवतः यह शक्तिपीठ उस काल में विशेष रूप से प्रसिद्ध था ।
माँ त्रिपुरा सुन्दरी के इस शक्तिपीठ की प्रसिद्धि का एक प्रमुख कारण यह था कि देवी के इस स्थान के प्रति विभिन्न राजवँषोंकी बहुत आस्था एवं श्रद्धा थी । मालवा के परमार राजाओं के शासनकाल में त्रिपुरा सुन्दरी की पूजा-अर्चना का विशेष प्रबन्ध किया गया । लोकविश्वास है कि गुजरात के शासक भी देवी के इस मन्दिर में अपनी श्रद्धा भक्ति नवोदित करने आते थे । गुजरात के सोलंकी नरेश सिद्धराज जयसिंह की यह इष्ट देवी थी ।
इतिहासकारों की धारणा है कि देवी के प्राचीन मन्दिर को या तो महमूद गजनवी ने गुजरात के सोमनाथ मन्दिर पर आक्रमण के लिए जाते समय तोड़ा अथवा दिल्ली के सुलतान अलाउद्दीन खिलजी ने अपने गुजरात अभियान पर जाते समय इस प्राचीन मन्दिर का विध्वंश किया । सम्भवतः श्रद्धालुओं द्वारा देवी की प्राचीन प्रतिमा वहाँ से हटाकर अन्यत्र सुरक्षित स्थान पर छिपा दी गई । तदनन्तर इस मन्दिर का जीर्णोद्धार होने पर देवी प्रतिमा को पुनर्प्रतिष्ठापित किया गया ।
माँ त्रिपुरा सुन्दरी वागड़ प्रदेश में अत्यधिक लोकप्रिय है तथा वहाँ के आदिवासियों में देवी की बहुत मान्यता है । रविवार के दिन देवी के मन्दिर में विशेष चहल-पहल रहती है ।
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Jai Tripura Sundari... Jai ho Banswara vali Maiyaaa.. Jai Mata Di
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