माता सती का शीश - सुन्धामाता "Sundha Mata-Jalore"

Sundha Mata Bhinmal Jalore
              सुन्धामाता का प्राचीन और प्रसिद्ध मन्दिर जालौर जिले की भीनमाल तहसील में जसवंतपुरा से 12 कि.मी. दर दंतालावास गाँव के समीप लगभग 1220 मीटर की ऊँचाई का एक विशाल पर्वत शिखर, जो की सुन्धा पर्वत कहलाता है, के पर्वतांचल में एक प्राचीन गुफा के भीतर स्थित है । पुराणों में तथा इस पर्वत पर विद्यमान चौहान राजा चाचिगदेव के विक्रम संवत् 1319 (1262 ई.) के शिलालेख में इस पर्वत को सुगन्धगिरी कहा गया है । इस पर्वत पर स्थित चामुण्डामाता ही पर्वतशिखर के नाम से लोक में सुगन्धामाता के नाम से विख्यात है ।
              ज्ञात इतिहास के अनुसार जालौर के प्रतापी चौहान राजा चाचिगदेव ने सुन्धा पहाड़ पर चामुण्डा का  मन्दिर बनवाया । जसवंतपुरा के पहाड़ों को सुन्धा पहाड़ कहा जाता है । जिस पर पहाड़ काटकर यह मन्दिर बनवाया गया है । नैणसी ने मन्दिर निर्माण का समय विक्रम संवत् 1312 लिखा है । अतः हो सकता है कि चाचिगदेव ने कुँवरपदे में या युवराज अवस्था में देवी के इस मन्दिर का निर्माण कराया हो । यहाँ से प्राप्त चाचिगदेव के शासनकाल के सुन्धा पर्वत पर शिलालेख वैशाख मास विक्रम संवत् 1319 (1262 ई.) से इस संबंध में प्रामाणीक जानकारी मिलती है । शिलालेख में चाचिगदेव को अतुल पराक्रमी, दधीचि के समान दानी, सुन्दर व्यक्तित्व का स्वामी बताया गया है, जिसने मेरुतुल्य तथा प्राकृतिक वनवैभव सम्पन्न सुगंधाद्रि पर्वत पर  चामुण्डा अघटेश्वरी (सुन्धामाता ) के मन्दिर व सभामण्डप का निर्माण कराया । यहाँ किन्नर मिथुन विचरण करते थे और मन्दिर का सभामण्डप सदैव मयूर ध्वनि और पक्षियों के कलरव से गुंजित रहता था ।
              लोकमान्यता में सुन्धामाता को अघटेश्वरी भी कहा जाता है । अघटेश्वरी से तात्पर्य वह धड़रहित देवी है, जिसका केवल सर पूजा जाता है । पौराणिक मान्यता के अनुसार राजा दक्ष के यज्ञ के विध्वंश के बाद शिव ने यज्ञ वेदी में जले हुए अपनी पत्नी सती के शव को कंधे पर उठाकर ताण्डव नृत्य किया था तब भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के शव के टुकड़े -टुकड़े कर छिन्न-भिन्न कर दिया । उसके शरीर के अंग भिन्न-भिन्न स्थानों पर जहाँ गिरे, वहाँ शक्तिपीठ स्थापित हो गये । सम्भवतः इस सुन्धा पर्वत पर सती का  सर गिरा जिससे वे अघटेश्वरी कहलायी ।
              देवी के  इस मन्दिर परिसर में एक प्राचीन शिवलिंग भी विद्यमान है, जो भूर्भुवः सवेश्वर महादेव (भुरेश्वर महादेव) के  रूप में विख्यात है । सुन्धामाता के विषय में एक जनश्रुति है कि बकासुर नामक राक्षस का वध करने के लिए चामुण्डा अपने सात शक्तियों (सप्तमातृकाओं) सहित यहाँ पर अवतरित हुई , जिसकी मूर्तियाँ चामुण्डा (सुन्धामाता) प्रतिमा के पार्श्व में प्रतिष्ठापित हैं ।
               सुन्धामाता का पावन तीर्थस्थल सड़क मार्ग से जुड़ा है । इसकी सीमा पर विशाल प्रवेश द्वार है, जहाँ से देवी मन्दिर को जाने वाले पर्वतीय मार्ग को पक्की सीढ़ियाँ बनाकर सुगम बनाया गया है । पहाड़ी से गिरता झरना अनुठे प्राकृतिक दृश्य का सृजन कर तीर्थ यात्रियों में उत्साह का संचार करता है ।
                सुन्धामाता मन्दिर परिसर के दो खण्ड हैं - प्रथम या अग्रिम खण्ड में भूभुर्वः स्वेश्वर महादेव का शिव मन्दिर है, जहाँ उक्त शिवलिंग स्थापित है । इसके आगे दूसरे खण्ड में सुन्धामाता का मन्दिर है जिसमे प्रवेश  हेतु विशाल एवं कलात्मक तोरणद्वार बना है । सीढियाँ चढ़ने पर आगे भव्य सभामण्डप है जो विशालकाय स्तम्भों  पर टिका है । मन्दिर के प्रथम और मुख्य गुफा कक्ष में सुन्धामाता या चामुण्डामाता की भव्य प्रतिमा प्रतिष्ठापित है । हाथ में खड्ग और  त्रिशूल धारण किये महिषासुर - मर्दिनी स्वरूप की यह प्रतिमा बहुत सजीव लगती है । उनके पार्श्व में ऐन्द्री, कौमारी, वैष्णवी, वाराही,नारसिंही, ब्रह्माणी, शाम्भवी आदि मातृ शक्तियाँ प्रतिष्ठित हैं । इनके अलावा वहाँ विद्यमान देव प्रतिमाओं में ब्रह्मा, शिव-पार्वती, स्थानक विष्णु, शेषशायी आदि प्रमुख हैं । इस देवी मन्दिर में वीणाधर शिव की एक दुर्लभ देव प्रतिमा है, जिसमे शिव ऐसे महिष के ऊपर विराजमान है, जिसका मुँह मानवाकार और सींग महिष जैसे हैं । ऊपर के दोनों हाथों में त्रिशूल, सर्प व निचले दोनों हाथों में वीणा धारण किये जटाधारी शिवमस्तक के चारों ओर प्रभामण्डल पर मुखमुद्रा अत्यन्त सौम्य, गले में मणिमाला धारण किये शिव की यह प्रतिमा एक दुर्लभ और उत्कृष्ट कलाकृति है । देवी मन्दिर के सभामण्डप के बहार संगमरमर की बानी कुछ अन्य देव प्रतिमाएँ भी प्रतिष्ठापित हैं जो बारहवीं और तेरहवीं शताब्दी के आस-पास की कला की परिचायक हैं । इसमें गंगा-यमुना की प्रतिमाएँ बहुत सजीव और  कलात्मक हैं ।
              वहाँ पास में ही इस देवी मन्दिर के निर्माता चौहान राजा चाचिगदेव का विक्रम संवत् 1319 का शिलालेख दो काले रंग के पत्थरों पर उत्कीर्ण है । सुन्धा पर्वत शिलालेख के नाम से प्रसिद्ध यह शिलालेख नाडोल और जालौर के  चौहान शासकों की उपलब्धियों की जानकारी देने वाला महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक साक्ष्य है।            सुन्धामाता का  बहुत माहात्म्य है । वर्ष  में तीन बार वैशाख, भाद्रपद एवं कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष में यहाँ मेला भरता है, जिसमे दूर-दूर से श्रद्धालु देवी के दर्शन एवं वांछित फल पाने यहाँ आते हैं ।

Sundha Mata Temple Bhinmal Jalore, जालौर की सुन्धामाता, Sugandha Mata Temple Bhinmal Jalore, Sundha Mata ka Mandir Bhinmal Jalore, Sugandha Mata ka Mandir Bhinmal Jalore, जालौर की सुगन्धामाता,
Share on Google Plus

About Unknown

A Blogger working to illuminate Indian heritage and culture.
    Blogger Comment
    Facebook Comment

1 comments:

  1. Jai Jalore ki Sundha Mata.. Jai Mata Di.. Jai Sundha Maiya

    ReplyDelete

मिशन कुलदेवी से जुडने के लिये आपका धन्यवाद